|
२० फरवरी, १९५७
''शरीरकी सीमाएं एक सांचा है; अंतरात्मा और. मनको इनमें अपने-आपको भरना होता है, इन्हें तोड़ना और निरंतर अधिकाधिक विस्तृत सीमाओंमें फिर-फिर ढालना होता है जबतक कि इस ससीम और उनकी अपनी असीमताके बीच मेलका कोई सूत्र न मिल आय ।',
(विचार और झांकियां)
मधुर मां, इससे हमें क्या समझना चाहिये कि ''शरीरकी सीमाएं एक सांचा है? ''
यदि तुम्हारा शरीर सुनिश्चित आकारका न होता और यदि तुम पूरी तरह सचेतन तथा निजी विशेषताओंवाला गठित व्यक्तित्व न होते तो तुम दूसरेके अंदर जा मिलते और पहचाने न जाते ! यहांतक कि जब हम केवल थोड़ा-सा ही अंदरकी ओर अत्यधिक भौतिक प्राण-सत्तामें जाते हैं तो वहां विभिन्न लोगोंके स्पंदनोंका ऐसा मिश्रण होता है कि वहां किसीको पहचान पाना बहुत मुश्किल होता है । और यदि तुम्हारे पास शरीर न हो तो यह एक प्रकारकी मालीदे जैसी जटिल चीज होगी । इसलिये यह आकार ही, शरीरका यह सुनिश्चित और (देखनेमें) कठोर आकार ही तुम्हें दूसरेसे अलग दिखाता है । इस प्रकार यह आकार मानों एक संचिका काम देता है । (एक बच्चेका संबोधित करते हुए) जानते हो सांचा क्या होता है? -- हां, हम उसके अंदर कुछ चीज, द्रव या अर्द्ध द्रव जैसी कोई चीज डाल देते है और जय वह जम जाती है तो हम साँचे- को तोडकर एक सुनिश्चित आकारकी चीज पा लेते है । हां, तो शरीर- का आकार प्राणिक और मानसिक शक्तियोंके लिये एक सांचेका काम देता है जिससे वे इसके अंदर एक सुनिश्चित आकार ग्रहण कर सकें और इस प्रकार तुम दूसरोंसे भिन्न एक व्यक्ति-सत्ता बन सको ।
थोडा-थोडा करके और बहुत धीमे-धीमे जीवनकी गतिविधियोंके और कम या अधिक सतर्क व सतत शिक्षाके द्वारा तुम ऐसे संवेदन पाने लगते हो जो तुम्हारे निजी होते हैं । और निजी भावनाएं तथा निजी विचार भी आने लगते है । व्यक्तिरूप मन बहुत ही विरल वस्तु. है, यह लंबी शिक्षाका ही फल होता है । अथवा यह एक प्रकारकी विचार-तरंग
४३ होती है जो तुम्हारे मस्तिष्कमेंसे गुजरती है और फिर दूसरेके और जन- समूहके मस्तिष्कमेंसे गुजरती है और यह निरंतर चक्कर काटती रहती है, इसका कोई व्यक्तित्व नहीं होता । तुम वही सोचते हों जो दूसरे सोचते हैं, दूसरे वही सोचते हैं जो कुछ और लोग सोच रहे हों और प्रत्येक व्यक्ति इसी प्रकार बड़ी मिली-जुली अवस्थामें सोचता है क्योंकि ये विचार-तरंगें, विचारक्पंदन एकसे दूसरेके पास पहुंचते रहते है । यदि तुम ध्यानसे अपने- आपको देखो तो तुम बहुत जल्दी यह जान जाओगे कि तुम्हारे अंदर: ऐसे विचार बहुत कम ही है जो तुम्हारे निजी हों । अपने विचारोंको तुम कहांसे लें आते हो? --सुनी-सुनायी बातोंसे, जो कुछ तुमने पढा है या सीखा है उससे; पर इनमेंसे कितने तुम्हारे अपने अनुभवका परिणाम है, तुम्हारे चिंतनका, विशुद्ध रूपसे तुम्हारे अपने निरीक्षणका परिणाम हैं? - अधिक नहीं ।
जिन लोगोंका प्रबल रूपमें बौद्धिक जीवन होता है, उन्हें ही चिंतन करने, निरीक्षण करने और विचारोंको एक साथ रखनेकी आदत होती है, और धीरे-धीरे इन्हींसे व्यक्तिरूप मनका निर्माण होता है ।
अधिकतर मनुष्य -- केवल अशिक्षित ही नहीं बल्कि पढे-लिखे भी -- अपने सिरमें बहुत ही विरोधी, बहुत ही प्रतिकूल विचार लिये रहते हैं और उन्हें इन विरोधोंका पतातक महीं होता । मैंने इस प्रकारके बहुतसे उदाहरण देखें हैं जिनमें लोगोंने ऐसे विचारोंको पोस रखा था जो परस्पर विरोधी थे । यहांतक कि राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक आदि मानव बुद्धिके सभी तथाकथित उच्चतर क्षेत्रोंके बारेमें उनकी अपनी सम्मतिया थीं, और एक ही विषयपर एकदम विरोधी सम्मतिया थीं पर उन्हें इस बातका पतातक न था । यदि तुम अपना निरीक्षण करो तो देरवोगे कि तुम्हारे ऐसे बहुतसे विचार हैं जिन्हें बीचके विचारोंकी शृंखलासे जोड़नेकी जरूरत है ताकि वे भद्दे रूपमें एक साय न पड़े रहें । और ये मध्यवर्ती विचार सामान्य विचारोंको पर्याप्त रूपमें विस्तृत करनेसे बनते है ।
इस प्रकार, इससे पहले कि कोई व्यक्तित्व सचमुच एक व्यक्तिगत रूप ले और अपनी व्यक्तिगत विशेषताएं रखने लगे, उसे एक पत्रमें रखा जाना जरूरी है, अन्यथा वह पानीकी तरह बह जायगा और उसका कोई आकार न बन पायेगा । अधिक निम्न स्तरके लोग अपने-आपको केवल नामसे ही जानते हैं । नामके बिना वै अपने-आपको अपने पड़ोसीसे अलग करके नहीं जान सकते । उनसे जब पूछा जाता है : ''तुम कौन हो? '' वे कहते हैं : ''मेरा नाम है अमुक ।'' कुछ समय बाद वे तुम्हें अपने पेशेके या अपनी मुख्य विशेषताके बारेमें बताने लगते हैं । तब यह पूछनेपर : ''तुम कौन हो? '' वे कहते हैं : ''मैं' एक चित्रकार हू'' ।
४४ परंतु एक विशेष स्तरपर उत्तर केवल नाम ही होता है ।
और नाम क्या है? एक शब्दके सिवा कुछ नहीं, ऐसा ही है न? और उसके पीछे क्या है? कुछ भी नहीं, बस, ढेर सारी अनिश्चित वस्तुएं जो व्यक्तिको किसी तरह भी पड़ोसीसे अलग नहीं करतीं । वह अलग इसलिये माना जाता है क्योंकि उसका अलग नाम है । यदि हरेकका वही नाम होता तो एक आदमीको दूसरेसे अलग पहचानना बहुत मुश्किल हो जाता ।
मैंने उस दिन तुम्हें हवाई जहाजोंके बारेमें लिखी एक पुस्तक' मेंसे एक दासकी कहानी सुनायी थी । जब कभी उससे कोई बात पूछी जाती तो वह सदा अपना नाम लें देता । यह चीज अपने-आपमें एक प्रगति थी । उस समय सब दासोंका एक ही नाम हुआ करता था ''दास'' -- सभी दासोंके साय ऐसा ही था - और उन्होंने उसे अपना लिया था, फलस्वरूप ३ सब एक व्यक्ति बने थे । उनका अपना व्यक्तित्व बिलकुल नहीं था, था, बस, एक पेशा और चुकी वह पेशा लगातार सभी दासोंके लिये एक ही था इस- लिये उन सबका नाम भी एक ही था ।
आदमी एक प्रकारकी, मुश्किलसे अर्द्धचेतन आदतसे जीता है, और कभी अलग होकर अपनेको नहीं देखता, यह नहीं देखता कि वह क्या करता है, क्यों करता है, कैसे करता है । बस, अम्यासवश वैसा करता रहता है । सभी लोग जिस विशेष वातावरण और विशेष देशमें वे पैदा होते है, आप- से-आप वहांकी आदतोंको अपना लेते है, न केवल शरीर-संबंधी स्थूल आदतों- को, बल्कि सोचने-विचारने, अनुभव करने और क्रिया करनेकी आदतोंको भी ।अपने ऊपर जरा भी ध्यान दिये बिना, बिलकुल सहज रूपसे ऐसा करते है । और यदि कोई उनका' ध्यान उधर आकर्षित करता है तो वे आश्चर्यचकित रह जाते है ।
वास्तवमें हमें सोने, बोलने, खाने, चलनेकी एक आदत है और हम यह सब बिलकुल सहज रूपमें क्यों और कैसेपर आश्चर्य किये बिना करते है... और बहुत-सी दूसरी चीजों भी । सारे समय हम चीजोंको आप-से-आप आदतके जोरपर करते रहते है और अपने करनेपर ध्यान नहीं देते । और इसीलिये, जब हम किसी खास समाजमें रहते हैं तो सहज रूपमें वही करने लगते है जो उस समाजमें किया जाता है । और यदि कोई कार्य करते, अनुभव करते, सोचते हुए अपना अवलोकन करना शुरू करता है तो उस परिवेशकी तुलनामें जिसमें वह रहता है असाधारण दानव-सा प्रतीत होता
'संत एक्यूपेरीकी लिखी ''तैर द ज़ोम्म'' पुस्तक ।
४५ अतः व्यक्तित्वका होना नियम बिलकुल नहीं है, यह एक अपवाद है । और यदि तुम्हारे पास विशेष आकारका यह झोला, तुम्हारा यह बाह्य शरीर, तुम्हारा यह प्रकट रूप न होता तो तुम सब मुश्किलसे ही एक-दूसरे- से अगल पहचाने जा सकते ।
व्यक्तित्वका होना एक विजय है । और जैसा कि श्रीअरविन्द यहां. कहते हैं, यह पहली विजय केवल एक पहली अवस्था है । जब तुम एक बार अपने अंदर व्यक्तिगत, स्वतंत्र और सचेतन सत्ता जैसी चीजका अनुभव कर लो तो तुम्हें यही करना होगा कि उस आकारको तोडकर आगे बढ़ो । उदाहरणार्थ, यदि तुम मानसिक तौरपर प्रगति करना चाहते हो तो तुम्हें अपने सभी मानसिक रूपोंको, अपनी सभी मानसिक रचनाओंको तोड़ देना होगा ताकि नयी रचनाएं बना सको । तो, पहले तो, अपनेको व्यक्ति रूप- मे लानेके लिये घोर परिश्रमकी आवश्यकता होती है और फिर प्रगति करने- क् लिये सब किये-करायेको नष्ट कर देना पड़ता है । परंतु जैसे कि तुम किसी क्रियाको करते हुए उसपर ध्यान नहीं देते, यह केवल आदतके द्वारा होती रहती है (यहां यह कह दूं कि स्वभावत: यह सब किसीके साथ नहीं होता) -- काम करने, पढ़ने, उन्नति करने, कुछ करनेका प्रयास, अपने- आपको कुछ थोड़ा-सा गढ़ना यह एक आदतसे होता जाता है -- तुम इसे बिलकुल सहज-स्वाभाविक रूपसे करते हो और जैसा कि मैंने कहा, करने हुए अपने ऊपर ध्यान भी नहीं देते ।
जब इन् बाह्य आकारोंकी आपसमें रगड़ होती है केवल तभी तुम यह अनुभव करना शुरू करते हो कि तुम दूसरोंसे भिन्न हो । अन्यथा अपने इस या उस नामके कारण ही तुम यह या वह व्यक्ति होते हो । जब रगड़ होती है, जब कोई चीज आरामसे नहीं चलती, केवल तभी तुम भिन्नता- से सचेत होते हो और देखते. हो कि तुम भिन्न हो, नहीं तो तुम्हें इसका पता भी नहीं होता और तुम भिन्न होते भी नहीं । वास्तवमें तुम एक- दूसरेसे बहुत कम, बहुत ही करा भिन्न हो ।
कितनी ही चीजों तुम अपने जीवनमें, कम-से-कम मूल रूपमें, ठीक उसी तरह करते हों जैसे दूसरे करते हैं । उदाहरणार्थ, सोना, चलना, खाना और इसी प्रकारकी अन्य सब चीजों । तुम कभी अपने-आपसे यह नहीं पूछते कि किसी चीजको तुम इसी तरह क्यों करते हो दूसरी तरहसे क्यों नहीं । यदि मैं तुमसे पूछ : तुम इस तरह क्यों करते हो, दूसरी तरह क्यों नहीं? तो तुम्हारी समझमें न आयेगा कि क्या कहो । पर सीधी-सी बात है तुम एक विशेष परिस्थितिमें पैदा हुए हो और उस परिस्थितिमें ऐसा ही करते- का रिवाज है । परन्तु यदि तुम किसी दूसरे कालमें, 'किन्हीं दूसरी परि-
४६ स्थितियोंमें पैदा हुए होते तो तुम बिलकुल दूसरी तरह आचरण करते और तुम्हें कुछ फर्क न मालूम होता, तुम्हें वह एकदम स्वाभाविक प्रतीत होता ... । एक उदाहरण लेती हूं -- बहुत, बहुत छोटी-सी बातका उदाहरण-- अधिकतर पश्चिमी देशोंमें और कुछ पूर्वी देशोंमें भी लोग इस तरह, दायेंसे बायें सीते हैं लेकिन जापानमें लोग बायेंसे दायें सीते है । हां तो, दायेंसे बायें मीना तुम्हें एकदम स्वाभाविक लगता हैं, लगता है न! तुम्हें ऐसा ही सिखाया गया है और इस बारेमें तुम कभी सोचते ही नहीं, बस उसी तरीकेसे सीते हो । तुम जापान जाते हो, वहां उनके सामने सीने बैठते हों और इससे उन्हें हंसी आती है क्योंकि उनकी आदत और तरह की है । यही बात लिखनेके साथ भी है, तुम लिखते हो बायेंसे दायें और ऐसे लोग भी हैं जो ऊपरसे नीचेकी ओर लिखते हैं और दूसरे बहुतसे दायेंसे बायें लिखते हैं और यह सब बिलकुल सहज रूपमें करते है । मैं। उन लोगोंकी बात नहीं कर रही जिन्होंने अध्ययन किया है, चिंतन किया है, लेरवनकी तुलना की है, मैं कम या अधिक शिक्षित लोगोंकी बात नहीं कर रही हू, नहीं, मैं बिल- कुल साधारण लोगोंकी बात कर रही हू और विशेषत: बच्चोंकी जो बिल- कुल सहज रूपमें और बिना किसी शंकाके वही करते हैं जो उनके चारों ओर होता है । और जब किसी परिस्थितिके संयोगसे ऐसी जगह ले जाये जाते है जहां ३ दूसरे प्रकारके आचार-व्यवहार देखते है तो यह उनके लिये एक आश्चर्यजनक बोध होता है कि वे जिस ढंगसे करते है उससे अलग ढंगसे भी चीजों की जा सकती है ।
और ये बिलकुल सामान्य बातें हैं, मेरा मतलब है कि ये वे बातें हैं जिनकी ओर तुम्हारा ध्यान झट आकर्षित हो जाता है परन्तु छोटेसे-छोटे ब्यौरेमें भी यह चीज सही है । तुम इस प्रकार इसलिये करते हो कि उस स्थान या उस परिस्थितिमें, जहां तुम रहते हो ऐसा ही किया जाता है । और तुम इसे करते हुए कमी इसपर ध्यान नहीं देते ।
मूल रूपमें, उद्भव-स्रोत था 'एक', था न? और सृष्टिको होना था 'बहु' । तो इस 'बहु' को अपने बहु रूप होनेके बारेमें सचेतन बनानेमें पर्याप्त परि- श्रम करना पड़ा होगा ।
और यदि हम बहुत ध्यानसे देखें तो लगता है कि यदि सृष्टिको अपने मूलस्रोतकी स्मृति बनी रहती तो यह विभिन्न प्रकारकी बहुविधता कभी न आ पाती । प्रत्येक प्राणीको केंद्रमें पूर्ण एकताकी भावना बनी रहती और विभिन्नता -- शायद -- कभी प्रकट न हों पाती ।
इस एकताकी स्मृतिको खो देनेके द्वारा ही विभित्रताओंसे सचेत होनेकी संभावना पैदा हुई । और जब हम, दूसरे छोरपर, अचेतनतामें जाते हैं
तो वहां भी हम एक प्रकारकी एकतामें जा गिरते हैं, जो अपने-आपसे अचेतन है, वहां विभिन्नता वैसे ही अनभिव्यक्त है जैसे अपने मूल स्रोतमें थी ।
दोनों छोरौपर विभित्रताका समान अभाव है; एक अवस्थामें एकताकी परम सचेतनताके कारण, दूसरीमें एकताकी पूर्ण अचेतनताके कारण ।
आकारकी स्थिरता एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा व्यक्तित्वका निर्माण किया जा सकता ।
तो, बस, सारी बात यही है ।
|